*B B C टाइम्स इन* 18 जुलाई “वे हमारे घर के “ह्यूमन डायनमो” थे। हम घर-भर के बच्चों के लिए वे सबसे डायनॉमिक शख्सियत थे। उनकी फिल्मों के प्रीमियर में हमारा पूरा परिवार आमंत्रित रहता था और हम सारे बच्चे फिल्म हिट होने की दुआएँ माँगते थे खासकर भारत और सोवियत संघ के रिश्तों पर बनी फिल्म “परदेशी (1957)” के प्रीमियर के बाद हमें मोती महल में दावत दी गई थी।” यह बात डॉ सईदा हमीद ने भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) द्वारा आयोजित ख्वाजा अहमद अब्बास की रचनात्मकता और सामाजिक चिंताओं पर केंद्रित ऑनलाइन कार्यक्रम की श्रृंखला में कही। इस ऑनलाइन आयोजन में अब्बास साहब पर केंद्रित 10 मिनिट की लघु फिल्म भी दिखाई गई।
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की केन्द्रीय इकाई द्वारा महान फिल्म निर्देशक, फिल्म-लेखक, कहानीकार-उपन्यासकार, पत्रकार और भी न जाने कितनी ही प्रतिभाओं के धनी ख्वाजा अहमद अब्बास की रचनात्मकता और सामाजिक चिंताओं पर केंद्रित ऑनलाइन कार्यक्रम की श्रृंखला का दूसरा आयोजन ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित फिल्म “दो बूँद पानी” पर केंद्रित था। सिमी ग्रेवाल और जलाल आग़ा अभिनीत यह फिल्म 1971 में बनी थी और इसे उस वर्ष राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म का पुरस्कार भी मिला था। पानी की कमी, बाँध और इस सबसे प्रभावित होने वाला जीवन इस फिल्म के केन्द्र में है।
इस श्रृंखला का पहला कार्यक्रम 3 जुलाई 2021 को उनकी फ़िल्म “राही” पर केन्द्रित था जो चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूरों की ज़िंदगी पर केंद्रित थी।
विनीत तिवारी ने सिनेमा जगत के मशहूर अदाकार दिलीप कुमार को याद करते हुए आयोजन की शुरुआत करते हुए कहा कि दिलीप कुमार बेहतरीन अभिनेता होने के साथ ही हिंदुस्तान की हिन्दुस्तानियत के लिए भी याद किये जायेंगे। चंद रोज पहले दिलीप कुमार शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं रहे। इसके साथ ही साथ ही इप्टा की वरिष्ठ साथी जोहरा सहगल और बेजोड़ अभिनेता संजीव कुमार को भी याद किया, 9 जुलाई को संजीव कुमार का जन्मदिन था। ख्वाजा अहमद अब्बास के बारे में जानकारी देते हुए विनीत ने बताया कि ख्वाजा अहमद अब्बास का रचना संसार इतना बड़ा है कि उसमें कहानियां, उपन्यास, आत्मकथा, यात्रा वृत्तांत, नाटक, साक्षात्कार, पटकथाएँ और फ़िल्में आदि के साथ सांगठनिक काम भी है। प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के वे संस्थापक सदस्य थे। विनीत ने एक बड़ी ही मजेदार बात की जानकारी देते हुए बताया की अब्बास साहब ने कहीं बताया कि अपनी फिल्मों के टिकट मैं ही सबसे ज्यादा खरीदता हूँ। अब्बास साहब की बनाई हुई फ़िल्में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ज्यादा हिट हुईं लेकिन अपने देश में बॉक्स ऑफिस नहीं हुईं क्योंकि अब्बास साहब द्वारा बनाई फ़िल्में सामाजिक-यथार्थवादी और जनता की समस्याओं से जुड़ी हुई होती थीं। उन्होंने मसाला फ़िल्में नहीं बनाईं जिनसे कमाई हो सके। जबकि उनके द्वारा दूसरों के लिए लिखी गई लगभग सभी फ़िल्में सुपर हिट रहीं जैसे आवारा, श्री 420, मेरा नाम जोकर, बॉबी। विनीत तिवारी (इंदौर) इप्टा के सक्रिय सदस्य, कवि, लेखक, डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के निर्माता, सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के कार्यकर्ता और प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव हैं।
कार्यक्रम में “दो बूँद पानी” फिल्म की व्याख्या के साथ अब्बास साहब से जुड़े अनजाने एवं रोचक प्रसंग साझा किये डॉ. सईदा हमीद (दिल्ली) ने। डॉ. सईदा हमीद योजना आयोग की पूर्व सदस्य, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और डॉ. ज़ाकिर हुसैन की जीवनीकार, सूफीवाद और उर्दू साहित्य की मर्मज्ञ लेखिका और मानवाधिकारों और औरतों के हक़ों की और कौमों और मुल्कों के बीच अमन की हिफ़ाज़त के लिए सक्रिय सामाजिक आंदोलनकारी, शिक्षाविद हैं लेकिन डॉ. सईदा हमीद की शख़्सियत का अहम् परिचय यह है कि वे ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्मों और किताबों की गहरी जानकार हैं, उनकी याद में बनी ट्रस्ट की अध्यक्ष हैं और वे अब्बास साहब की भतीजी भी हैं।
उनके साथ इस प्रस्तुति में तकनीकि सहायक थीं ख्वाजा अहमद अब्बास मेमोरियल ट्रस्ट की कार्यक्रम समन्वयक और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स की शोधार्थी सौम्या लाम्बा (दिल्ली)।
डॉ. सईदा हमीद ने ख्वाजा अहमद अब्बास के शुरुआती दिनों और पारिवारिक जानकारियों को साझा करते हुए बताया कि अब्बास साहब ने अपनी 73 बरस की जिंदगी में 75 किताबें लिखीं लेकिन उनकी मृत्यु के बाद हमारे पास उनकी केवल 8-10 किताबें ही थीं। हमारे पास न ही उनकी फिल्मों का प्रिंट था न ही कोई तस्वीरें उन्होंने सहेज कर रखी थीं। हमने कबाड़ियों, रद्दीवालों, परिचितों, दोस्तों की सहायता से उनका सारा रचनाकर्म एकत्रित किया। सईदा जी ने विशेष रूप से उल्लेखित करते हुए बताया की अब्बास साहब द्वारा गाँधी जी पर लिखी किताब “बैरिस्टर एट लॉ” भी हमने कबाड़ी से खरीदी। इस तरह ख्वाजा अहमद अब्बास ट्रस्ट बना। इसी ट्रस्ट के सहयोग से कश्मीर की इफत फातमा द्वारा ख्वाजा अहमद अब्बास पर केंद्रित 10 मिनिट की फिल्म जिसमें अब्बास के साथ ही सरदार जाफरी, कृश्न चन्दर की आवाज में कमेंट्री थी साथ ही लघु फिल्म के अंत में अमिताभ बच्चन बताते हैं कि जब वे फिल्म में काम पाने के लिए परेशान हो रहे थे और उनके लम्बे कद के कारण फिल्म में उन्हें काम नहीं मिल रहा था तब अब्बास साहब ने अपनी फिल्म “सात हिन्दुस्तानी” में उन्हें ब्रेक दिया था। 1980 में के. एन. नायर द्वारा लिए इंटरव्यूह के कुछ अंश भी इस फिल्म में थे। इस 10 मिनिट की फिल्म से ऐसा लगा कि फिल्म जगत में के. ए. अब्बास के नाम से पहचाने जाने वाले ख्वाजा अहमद अब्बास हमारे आस-पास ही हैं। इस लघु फिल्म से अब्बास साहब द्वारा निर्देशित फिल्मों धरती के लाल, अनहोनी, आवारा, परदेशी, शहर और सपना के राजनीतिक, सामाजिक पहलुओं को जाना।
डॉ सईदा हामिद ने फिल्म “दो बूँद पानी” पर चर्चा शुरू करते हुए फिल्म को बनने की कहानी बतायी कि ख्वाजा अहमद अब्बास को लाल बहादुर शास्त्री ने राजस्थान में पानी की समस्या पर केंद्रित फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया और इस तरह “दो बूँद पानी” फिल्म का निर्माण हुआ। यह जिक्र अब्बास ने खुद अपनी बायोग्राफी “आय एम नॉट एन आयलैंड” में किया है जिसका हिंदी और उर्दू अनुवाद “मैं जजीरा नहीं हूँ” बहुत ही जल्दी उपलब्ध होने वाला है जिसे शहला नकवी ने अनुदित किया है। सईदा जी बताती हैं इस फिल्म में मुख्य पात्र हैं गंगा और गौरी (जलाल आगा एवं सिमी ग्रेवाल अभिनीत)। फिल्म का मुख्य उद्देश्य है पानी समस्या। “पानी है तो जीवन है, पानी है तो जान है…दो बूँद पानी से इस मुर्दा जमीन में जान आ जावेगी।” पानी के गंभीर मसले के साथ ही औरतों द्वारा किये जाने वाले श्रम को इस फिल्म के जरिये बताया है। इसी फिल्म में लम्बू इंजीनियर का किरदार जो अब्बास साहब ने अमिताभ बच्चन को ध्यान में रखकर लिखा था लेकिन तब तक अमिताभ बड़े हीरो बन चुके थे तब अब्बास साहब ने किरण कुमार को इस किरदार के लिए चुना। यह फिल्म अभिनेता किरण कुमार की डेब्यू फिल्म थी। और इस लम्बू इंजीनियर के जरिये अब्बास लोगों को संदेश देते हैं कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हमारा मुल्क, मुल्क के रहवासी चाहे वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या जाति के ही क्यों न हों; सब एक हैं, सबकी तकलीफें, दिक्क्तें एक हैं। हमें मिलकर इनका सामना करना होगा। पलायन और उसका दर्द सबके लिए समान होता है। इस फिल्म के गाने और डायलॉग लिखे प्रेम धवन और सरदार जाफरी ने।
तकनिकी पक्ष संभाल रही युवा शोधार्थी सौम्या ने कहा कि अब्बास साहब की फ़िल्में भारत की परिस्थतियों को बखूबी बयान करती हैं साथ ही उनकी फिल्मों के जरिये हम युवाओं को अपने समाज के इतिहास को जानने और समझने का मौका भी मिलता है।
इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और वरिष्ठ रंगकर्मी तनवीर अख्तर ने कहा कि जिन बड़े लोगों का नाम हम बचपन में सुना करते थे बड़े होने पर इप्टा से जुड़ने के बाद उन लोगों को करीब से मिलने, जानने, समझने का मौका मिला यह हमें ऊर्जावान बनाता है। इप्टा ने हमेशा लोगों के हक और अधिकार, समस्याओं के सवाल को अपने नाटकों के जरिये उठाया है और आगे भी यह कायम रहेगा। जल-जंगल-जमीन हमारी मुख्य जरूरतों में से एक हैं और यह फिल्म भी इस तरह की समस्याओं पर ही केंद्रित है।
वरिष्ठ अर्थशास्त्री, फिल्मकार-नाटककार एवं कृषि क्षेत्र की वरिष्ठ शोधकर्ता डॉ जया मेहता जिन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्में, लेख और कहानियाँ पढ़कर इस ऑनलाइन आयोजन की पृष्ठभूमि रख रूपरेखा तैयार की उन्होंने इस फिल्म के एक अलग लेकिन मुख्य पहलू, मुख्य संदेश को सामने रखा। डॉ जया ने कहा कि जब यह फिल्म बनी तब साठ-सत्तर का दशक राष्ट्र निर्माण का समय था। नेहरू जी और उनके सहयोगी देश निर्माण के जरिये लोगों के जीवन स्तर को सुधारने वाली योजनाएँ बनाने और उन्हें शीघ्र लागू करने में लगे थे, बड़े-बड़े बाँध बनाए जा रहे थे, उद्योगीकरण का विकास हो रहा था। यह वह दौर था जब डॉक्टर्स, इंजीनियर इत्यादि देश के लिए कुछ भी कर गुजरने के भाव से काम करते थे। इसी फिल्म में एक डायलॉग है जब गंगा जो फिल्म का मुख्य किरदार है लम्बू इंजीनियर से बोलता है “आप साहब लोग इन बड़ी-बड़ी गाड़ियों में सरपट भागते निकल जाते हो कभी आजु-बाजु भी देख लिया कीजिये।” दरअसल इस जरिये अब्बास साहब कह रहे हैं कि राष्ट्र निर्माण का मतलब सबका निर्माण, देश की समूची जनता का निर्माण है। उस दशक में जो राष्ट्र निर्माण के कार्य किये गए वे सबको ध्यान में रखकर ही किये गए थे लेकिन आज हम पाते हैं कि देश का असली निर्माण नहीं हुआ था। राजस्थान में उस समय बनी यह 600 किलोमीटर लम्बी नहर देश की सबसे लम्बी नहर थी जिसके जरिये पंद्रह लाख हेक्टेयर का रकबा सिंचित होता लेकिन आज हम पाते हैं कि उस समय जैसा और जो सोचा गया वह प्रेक्टिकली सफल नहीं हुआ। जिस क्षेत्र से नहर निकली वहाँ बसाहट ही नहीं थी, जिन क्षेत्रों से नहर निकली वहाँ जल स्तर इतना बढ़ गया की आस-पास के क्षेत्र डूब में आ गए। क्योंकि तब यह पता ही नहीं था कि बड़े बांध से डूब क्षेत्र बढ़ जाता है। लेकिन इसका मतलब मेरे कहने का यह हरगिज मतलब नहीं है कि मैं बाँध के विरोध में हूँ। राष्ट्र का निर्माण मतलब राष्ट्र में रहने वाली समूची आबादी का विकास हो, सबको समान सुविधाएँ हासिल हों और अब्बास साहब अपनी फिल्मों के जरिये यही कहते नजर आते हैं। डॉ जया ने फिल्म के आर्थिक, राजनीतिक विकास के पक्ष को रखते हुए कहा कि बेशक हमें पुनर्रीक्षण करना जरूरी है लेकिन राष्ट्रीयता उससे भी ज्यादा जरूरी है।
इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश (लखनऊ) ने सबका धन्यवाद देते हुए कहा अब्बास साहब की फिल्मों के जरिये हम अपना नवीनीकरण कर रहे हैं। मुझे फ़िराक़ गोरखपुरी की नज्म यह याद आती है:
“आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हम असरों,
जब भी उनको ध्यान आएगा, तुमने फ़िराक़ को देखा है।”
राकेश कहते हैं कि अब्बास साहब ने इस फिल्म के जरिये महिला सशक्तिकरण के सवाल को बहुत ही मुखर तरीके से रखा है। उनकी इन फिल्मों के जरिये हम अपने आप को साथ ही अपनी आने वाली पीढ़ियों को समृद्ध करेंगे।
मुरादाबाद से जुड़े मुसर्रफ अली कहते हैं कि जिस तरह अब्बास साहब ने अपनी फिल्मों के जरिये आम जनता की परेशानियों को सामने रखा है आज इस तरह की फ़िल्में बनना बंद हो गई हैं। नोट बंदी के दौरान जिस तरह लोग अपनी छोटी-छोटी बचत के रुपयों को बदलवाने के लिए परेशान हुए इस तरह की अन्य समस्याओं को भी इसी तरह किसी फिल्म के जरिये सामने लाना जरूरी है।
इस ऑनलाइन कार्यक्रम में प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव प्रोफ़ेसर सुखदेव सिंह (चंडीगढ़), इप्टा की राष्ट्रीय सचिव उषा आठले (मुंबई), उर्दू के शायर अहमद बद्र (जमशेदपुर), दिल्ली से अंतरा देबसेन, सहेली संगठन की कार्यकर्ता आसिमा, वरिष्ठ साथी रंजना सेन एवं कोनिनीका, अरुणा सिन्हा, तिहाड़ जेल सुपरिटेंडेंट अजय भाटिया, गुना से वरिष्ठ साहित्यकार निरंजन श्रोत्रिय, इंटरनेशनल कार्टूनिस्ट शरद शर्मा, अर्पिता (जमशेदपुर), इंदौर से विजय दलाल, अरविन्द पोरवाल, प्रमोद बागड़ी, सारिका श्रीवास्तव, प्रज्ञा सहाय आदि के साथ ही इप्टा और प्रलेस के देशभर के पदाधिकारी और फिल्मों में रूचि रखने वाले दर्शक और श्रोता शामिल हुए.
संलग्न : ऑनलाइन सभा के चित्र
१. पोस्टर – दो बूँद पानी
२ -डॉ सईदा हमीद
३- तनवीर अख्तर