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लेखिका,  ललिताविम्मी। ( भिवानी हरियाणा )

मेरे गाँव से दिल्ली जाने वाली बस में बैठा हूँ, खिड़की के बराबर वाली सीट है, मौसम कुछ ठन्डा सा ही है,बंद बस की खिडकियों से भी इक सर्द सा झोंका कभी कभी माथे को छूकर विचारों को झटका दे जाता है।
      मै जब भी अकेला होता हूँ, पता नहीं क्यों वो लड़की मुझे बहुत याद आती है, साठ वर्ष की उम्र हो चुकी है मेरी,वो भी जहाँ होगी शायद पचास के आस पास होगी। उसनें तो मुझे शायद कभी देखा भी न हो,पर मेरी आँखें आज भी जाने क्यों उसे तलाशती रहती हैं।मध्यम कद ,कमर तक लम्बे घने बाल, बड़ी बड़ी गहरी काली और उदास आखेँ, गोरा रंग,  गोल मटोल चेहरा। वो अपने सिर को मुस्लिम युवतियों की तरह लपेट कर ढकती थी।उन दिनों हमारे गाँव में लडकियों के सिर ढकने का रिवाज था।


  तब गांव में छतें आजकल की तरह बहुत ऊची  नहीं होती थी, लोग छतों से भी एकदूसरे के घर आ जाया करते थे। हमारा घर भी उनके घर से  गलियों के हिसाब से तो थोड़ा दूर था,  घूमकर आना पडता था, किन्तु छतों से तो चौथी ही छत पड़ती थी,बीच में एक टूटे से मकान का ढेर सारा मलबा, जिस की  गिनती भी हम एक छत के तौर पर कर सकते थे।
मेरी भतीजियां लगभग उसकी उम्र की थी,शायद इस कारण उन सब में दोस्ताना रिश्ता था,  हम जब भी दिल्ली से छुट्टियों में गांव आते मेरी भतीजियों का अधिकतर समय उसी के पास बीतता था, पढ़ना भी उसी के पास।भाभियों को भी दिक्कत नहीं होती थी क्योंकि वो दोनो अपने अपने स्कूल का काम निपटा ती थी  उस के पास। वो शायद पढाई में भी काफी अच्छी थी,क्योंकि जब भी भाभी कहती, अपने चाचा से समझ लो लडकियों, तभी वे कहती ,अरे माँ ये तो हमे विनीता दीदी ने करवा भी दिया और हमें याद भी हो गया।
वो तो तुमसे एक कक्षा ही तो आगे है।
पर माँ दीदी को सब आता है।
अच्छा। होशियार लड़की है फिर तो, बेचारी की माँ तो मरणासन्न है सारा काम भी करती है और पढाई भी ।।
उसके पिता हमारे गांव मे ही मलेरिया विभाग के कर्मचारी थे, वो लोग किराये के घर में रहते थे।
विनीता हमारे घर कभी भी नहीं आती थीं, भाभी के बुलाने पर भतीजी ने बताया था कि वो अपनी माँ को अकेला छोड़ कर नहीं  आ सकती।
मैं अपने दोनों भाईयों के साथ दिल्ली रह कर ही पढ़ रहा था, भाई वहां नौकरी करते थे, मेरे माँ बाबूजी  कुछ वर्ष पहले ही  परलोक सिधार आ गये थे। गांव में  हमारा घर था,और जमीन हमने बटाई पर दे रखी थी।  बड़ी भाभी को विनीता मेरे लिए पसंद थी,उनका मानना था कि वो आगे पढ़ा लेगीं उसे, मेरा भी डिग्री पूरा हो चुका था और नौकरी की तैयारी के साथ साथ मैं  स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी कर रहा था।
भाभीजी को शायद मेरी और उसकी उम्र का फर्क भी सामान्य ही लग रहा था जबकि वह अभी ग्यारहवीं कक्षा में ही थी। वो इस बात को लेकर ऊहापोह में थी कि शादी की बात किस से की जाए क्योंकि उस के पिता तो हर समय शराब के नशे में ही रहते थे और माँ की ये हालत।
ये बात सुनी तो मै भी उस लड़की को दूर खिडक़ी से निहारा करता था ,कई बार मुझे वो एक लडंकी कम और मशीन अधिक लगती, मैने उसे कभी भी हँसते या मुस्कराते नहीं देखा था।

वो सुबह शायद विनीता की जिंदगी की बहुत बदनसीब सुबह थी, उस की माँ परलोक सिधार गई थी, मै तब भी दूर खिड़की से सब देख रहा था , मैने उस लड़की को आज भी मशीन की तरह ही देखा था आज वह और दिनों से ज्यादा व्यस्त और जल्दी में लग रही थी।  वह न रो रही थी न चिल्ला रही थी , बस उसकी आँखें हमेशां से ज्यादा उदास थी।
      चंद दिनों बाद हम लोग चले गये थे भाभी सोच रही थी  कि एक महीनें के बाद आकर वह उसके बाप से मिलें गी।पर शायद कुदरत को कुछ और ही मंजूर था , विनीता के घर पर उसके पिता के किसी पहचान वाले नशेड़ी ने बदतमीजी करनी चाही  विनीता के शौर सेे लोग तो इकट्ठा हो गए, नशेड़ी की पिटाई भी हुई, पर एक बदनामी का धब्बा उसके माथे पर भी चिपक गया। ये खबर शायद भाभी तक भी पहुंच गई थी क्योंकि फिर उसका जिक्र हमारे घर में कभी नहीं हुआ।मैं किसी काम से गांव आया था काफी देर खिडंकी के पास खड़ा रहा पर वो   गहरीकाली  और उदास आँखों वाली लड़की  मुझे नहीं दिखाई दी।  बातों ही बातों में जिक्र से पता चला कि उस घटना के बाद वो लोग यहाँ से चले गए थे।
  एक जमाना बीत गया है,पर मैं उस खिड़की पर खड़ा होकर आज भी उसे वहीं ढूंढता हूँ।

कहानी का नाम, “वो लड़की”।

लेखिका,  ललिताविम्मी।

भिवानी हरियाणा।‌

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