स्वास्थ्य मनुष्य का मूल अधिकार है — यह न केवल संविधान की भावना है बल्कि शासन की प्राथमिक जिम्मेदारी भी। किंतु जब राज्य के अस्पतालों में उपयोग होने वाली दवाओं और इंजेक्शनों की जांच तक निजी कंपनियों के भरोसे छोड़ दी जाए, तब यह अधिकार कागज़ी वादा बनकर रह जाता है।
सामाजिक कार्यकर्ता कमल पाटनी , रतलाम ने बताया कि मध्यप्रदेश में सरकारी अस्पतालों को दिए जा रहे इंजेक्शनों की गुणवत्ता की जांच के लिए कोई सरकारी लैब नहीं है। सैकड़ों जिलों और हज़ारों अस्पतालों के इंजेक्शन, सिर्फ एक निजी कंपनी द्वारा जांचे जा रहे हैं। सोचिए — करोड़ों लोगों का जीवन, एक ऐसी प्रणाली पर निर्भर है जहाँ न जवाबदेही है, न पारदर्शिता।
⚠️ जब जांचकर्ता भी लाभार्थी बन जाए
किसी भी जांच का उद्देश्य निष्पक्षता होता है, पर जब जांच और सप्लाई दोनों एक ही व्यावसायिक चेन से जुड़ी हों, तो परिणाम क्या होंगे, यह किसी से छिपा नहीं। निजी कंपनियाँ वही दिखाएंगी जो उनके आर्थिक हित में हो। प्रशासन “सब कुछ ठीक है” की रिपोर्ट लेकर चैन की नींद सो जाता है, जबकि वास्तविकता ज़मीन पर सड़ चुकी होती है।
💊 दवा में मिलावट, व्यवस्था में भ्रष्टाचार
अस्पतालों में खराब इंजेक्शन और घटिया दवाओं की शिकायतें आम हैं, पर जांच रिपोर्ट में सब “सही” निकल आता है। क्यों? क्योंकि न तो सरकारी प्रयोगशाला सक्रिय है, न अधिकारी जवाबदेह। जनता की जान से बड़ा व्यापार शायद कोई नहीं रह गया।
👨⚕️ शासन की लापरवाही या मौन साझेदारी?
जब स्वास्थ्य अधिकारी केवल बयान देकर बच निकलते हैं — “शुरुआती रिपोर्ट में गड़बड़ी नहीं मिली थी” — तो यह प्रशासनिक संवेदनहीनता की चरम सीमा है। जिनके हस्ताक्षर पर जीवन और मृत्यु का फैसला निर्भर करता है, वे ही अगर आंखें मूंद लें, तो व्यवस्था से विश्वास समाप्त हो जाता है।
💬 जन-जागरूकता संदेश
> जनता को यह जानना चाहिए कि “सरकारी जांच” और “निजी जांच” में कितना अंतर है।
यह केवल तकनीकी नहीं, बल्कि नैतिक और मानवीय जिम्मेदारी का प्रश्न है।
जब तक हर जिले में सरकारी ड्रग टेस्टिंग लैब स्थापित नहीं होगी, तब तक इंजेक्शन से जीवन नहीं, जोखिम मिलेगा।
🧭 समाधान की दिशा
1. प्रत्येक संभाग में सरकारी दवा-जांच प्रयोगशाला की स्थापना अनिवार्य की जाए।
2. दवा व इंजेक्शन सप्लाई में थर्ड पार्टी क्वालिटी रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए।
3. स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की जवाबदेही तय की जाए।
4. निजी कंपनियों से मिलीभगत पर लोकायुक्त व स्वास्थ्य आयोग जांच हो।
निष्कर्ष:
>
जनता का स्वास्थ्य, सरकार की नैतिक परीक्षा है।
जांच का ठेका देकर शासन बच सकता है, लेकिन समाज नहीं।