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आशीष दशोत्तर

हिंदी के विद्वान डॉ रामकुमार वर्मा सन् 1975 में रतलाम आए थे । उनके रतलाम आगमन और रतलाम में उनके आयोजन को लेकर बहुत रोचक प्रसंग उपस्थित हुए। उस समय शासकीय कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय रतलाम (तब तीनों संकाय एक ही परिसर में लगा करते थे।) में साहित्यिक वातावरण का दौर था । डॉ. जयकुमार जलज , चंद्रकांत देवताले , डॉ शरद पगारे जैसे विद्वान इन आयोजनों को लेकर बहुत गंभीर रहा करते थे। हर बार यह कोशिश रहती थी कि बेहतर से बेहतर शख्सियत को महाविद्यालय में आमंत्रित किया जाए।

इसी क्रम में डॉ रामकुमार वर्मा भी रतलाम महाविद्यालय में व्याख्यान के लिए आए थे। उस समय की स्मृतियों के पन्ने खोलते हुए डॉ जयकुमार जलज बताते हैं कि डॉ रामकुमार वर्मा के रतलाम आने का संयोग भी विचित्र रहा। जलज जी रामकुमार वर्मा के शिष्य रहे थे, इसलिए उन्हें रतलाम आने का आग्रह उन्होंने ही किया। डा.रामकुमार वर्मा को वर्धा में विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए उपस्थित होना था। उस में सम्मिलित होने के बाद उनको मुंबई (तब बम्बई) पहुंचना था। उसके बाद वे रतलाम आने के लिए तैयार हो गए थे।

रतलाम में डॉ. वर्मा की ट्रेन को सुबह पहुंचना था। डॉ. वर्मा को घर तक कैसे लाया जाए, इस कोशिश में जलज जी और देवताले जी काफी परेशान होते रहे। उस समय कार की व्यवस्था करना बहुत कठिन था। शहर में इक्का-दुक्का कार थी, जो किसी साहित्यकार के लिए उपलब्ध होना बड़ा मुश्किल था। इसी कोशिश में लगे जलज जी और देवताले जी निर्धारित समय से कुछ देरी से रेलवे स्टेशन पहुंच पाए । वहां पहुंचने पर पता चला कि ट्रेन तो आकर जा चुकी है। ये परेशान हो गए कि रामकुमार जी ट्रेन से उतरे या नहीं? उतरे तो कहां गए?

इन्होंने प्रतीक्षा कक्ष में जाकर देखा तो वहां रामकुमार वर्मा मौजूद थे । वर्मा जी से आशीर्वाद लिया और स्टेशन के बाहर निकले। उस समय परिवहन के लिए तांगों की लम्बी कतार रेलवे स्टेशन के बाहर लगी होती थी। डॉ. रामकुमार वर्मा को तांगे में बिठाया और उसके पीछे जलज जी और देवताले जी साइकिल पर सवार होकर चले।

डॉ . रामकुमार वर्मा जलज जी के निवास पर ही दो दिन ठहरे । रतलाम में उनका अविस्मरणीय व्याख्यान हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में विद्यार्थी, शिक्षक और शहर के साहित्यकार भी मौजूद थे। आज भी उस आयोजन के साक्षी ,समारोह की गरिमा का बखान किया करते हैं। महाविद्यालय में यह सिलसिला निरंतर जारी रहा।
यह पुस्तक नहीं मिठाई है
जलज जी की भाषा विज्ञान में रुचि ने रतलाम में फादर कामिल बुल्के को भी आने पर मजबूर किया। उनके रतलाम में दो कार्यक्रम हुए, एक महाविद्यालय में और दूसरा नगर निगम में । महाविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में जब फादर कामिल बुल्के को जलज जी ने अपनी भाषा विज्ञान की किताब भेंट की तो फादर कामिल बुल्के का चेहरा प्रसन्नता से भर गया। वे कहने लगे, यह पुस्तक नहीं यह मिठाई है । मैं इसे सहर्ष ग्रहण करता हूं । प्रख्यात समालोचक डॉ नामवर सिंह रतलाम महाविद्यालय में व्याख्यान के लिए आमंत्रित किए गए। संयोग से उनके व्याख्यान में श्रोताओं की उपस्थिति कुछ कम रही। नामवर जी ने जलज जी पूछा, हिंदी के तो सारे लोग यहां आए हैं न!’ जलज जी ने उन्हें आश्वस्त किया और नामवर जी ने फिर जो व्याख्यान दिया वह काफी प्रभावी रहा।

इसी महाविद्यालय में त्रिलोचन , रामेश्वर शुक्ल अंचल, शमशेर बहादुर सिंह, रमेश बक्षी , नरेश मेहता , मध्ययुगीन साहित्य के विद्वान विश्वनाथ प्रसाद मिश्र , डॉ. राम मूर्ति त्रिपाठी , डॉ. प्रभाकर माचवे, श्रीकांत जोशी जैसे कई विद्वान आए और एक साहित्यिक वातावरण यहाँ बना रहा ।
श्रीनरेश मेहता के भी रतलाम आने का संयोग अजीब रहा। आकाशवाणी पर कविता पाठ के दौरान जलज जी से श्री नरेश मेहता जी की भेंट हुई । नरेश मेहता जी ने जलज जी की कविता की प्रशंसा की। बाद में रतलाम में एक साहित्यिक संस्था के आयोजन में जलज जी के माध्यम से श्री नरेश मेहता जी को आमंत्रित किया गया। संस्था के आयोजन की शुरुआत एक नृत्य से हुई।नृत्य हालांकि शालीनता से परिपूर्ण था,मगर नरेश जी इसे देख असहज हो गए। जलज जी से कहने लगे, ऐसे आयोजन में इस तरह की प्रस्तुति मत रखा कीजिए। मगर उसके बाद साहित्यिक उद्बोधन और नगर के साहित्यकारों के बीच नरेश मेहता जी ने अपने अविस्मरणीय संस्मरण साझा किए,वे आज भी साहित्य प्रेमियों के मन-मस्तिष्क पर छाए हुए हैं।

ये संस्मरण बताते हैं कि महाविद्यालयों में कभी साहित्य का स्वर्णिम दौर रहा करता था, मगर आज महाविद्यालयों से साहित्य का ऐसा वातावरण गायब हो चुका है । अध्ययनशालाएँ बढ़ी हैं, परिसर बड़े हुए हैं, प्राध्यापकों का वेतन बढ़ा है , मगर ऐसे महत्वपूर्ण आयोजन गायब से हो गए हैं। यह चिंतन का विषय होना चाहिए।

आशीष दशोत्तर

12/2, कोमल नगर
बरबड़ रोड़
रतलाम(म.प्र.)
मो. 9827084966

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