*B B C टाइम्स इन* रतलाम/ भोपाल 16 मई श्रमजीवी पत्रकार संघ के मुख्य कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष दीपक जैन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का कथन स्वागत योग्य है पत्रकारों को अदालती कार्रवाई कवर करने के लिए अदालत परिसर तक आने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें इसके लिए आभासी प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया जाएगा। इससे भारतीय पत्रकारिता के लिए सुविधाओं के कई रास्ते खुल जाएंगे। समय, पेट्रोल और ऊर्जा की बचत होगी। कई साल से पत्रकारिता कर रहे संवाददाताओं के बीच यह मुद्दा अरसे से चर्चा में था। अप्रत्यक्ष रूप से मांग भी की जा रही थी। लेकिन तब एक वर्ग इसके खिलाफ़ था और कहता था कि फ़ैसला आने तक न्यायालयीन कार्रवाई मीडिया में आने से ही रोक दी जानी चाहिए। माननीय मुख्य न्यायाधीश की इस पहल से हम उम्मीद कर सकते हैं कि लोकतंत्र के इन दो ज़िम्मेदार संस्थानों के बीच सदभाव और समन्वय अधिक होगा न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्रवाई के कवरेज का तरीक़ा और पत्रकारों के काम काज मे सब कुछ खुला था। जिन टीवी संवाददाताओं को संयुक्त राष्ट्र की कार्रवाई कवर करनी होती थी, उन्हें वीडियो लिंक और फ़ीड भेजने की सुविधाएं दी गई थीं। वे अपने मीडिया सेंटर में बैठकर यह काम कर सकते थे। अलबत्ता जब कोई ख़ास ब्रीफ़िंग का दिन आता तो पत्रकार कवरेज हॉल में पहुंच जाते थे। कई पत्रकार तो महीनों तक अपने चैनल या समाचारपत्र के कार्यालय ही नहीं जाते अदालतों में टीवी यूनिटों के लिए अलग से स्थान आरक्षित रहता है संवाददाताओं के प्रवेश पर कोई बंदिश नहीं थी। न्यायालय की गरिमा की रक्षा करते हुए सारे संवाददाता अदालत परिसर में घूमते और अपनी रिपोर्टिंग करते हे
इन दिनों भारतीय न्यायालयों में चल रहे महत्वपूर्ण मामलों के मीडिया ट्रायल की बड़ी चर्चा रहती है। कहा जाता है कि पत्रकार फ़ैसला आने से पहले ही अपने समाचार माध्यमों के ज़रिए तर्कों कुतर्कों से फ़ैसला सुना देते हैं। यह अनुचित तो है, पर यह भी सच है कि अदालत में जब पत्रकारों को प्रवेश नहीं मिलता तो भी उसे अपने पेशेवर दायित्व को तो निभाना ही होता है। लोग जानना चाहते हैं कि आख़िर अमुक मामले में आज क्या हुआ। ऐसी सूरत में वकीलों, सेवानिवृत न्यायाधीशों और क़ानून के जानकारों से बात करके वे ख़बर की तह में जाना चाहते हैं। इस चक्कर में अक्सर तथ्यों को रखने में गलती हो जाती है, क्योंकि किसी मामले के बुनियादी तथ्य तो पता होते हैं, लेकिन अदालत के अंदरूनी रिकॉर्ड में बंद दस्तावेज़ क्या कहते हैं यह संवाददाताओं को पता नहीं होता है। चीफ़ जस्टिस के इस ऐलान से पत्रकारिता की शुद्धता बढ़ जाएगी।
इसी तरह अपेंडिक्स की तरह एक प्रावधान अभी भी न्यायपालिका के साथ चिपका हुआ है। इसे अदालत की अवमानना कहते हैं। पत्रकारिता अदालत के फ़ैसलों की समीक्षा नहीं करना चाहती, मगर यह भी कड़वी सचाईं है कि न्यायपालिका के भीतर की गंदगी अवमानना की आड़ में छिप जाती है। दरअसल यह अंग्रेजी हुकूमत के दिनों का प्रावधान है, जब अदालतें भारतीय क्रांतिकारियों को सनक भरे निर्णयों से फांसी जैसा क्रूर निर्णय सुनाती थीं और पत्रकार अदालत की अवमानना से डरकर उसकी विवेचना भी नहीं कर पाते थे। गोरी सत्ता के दरम्यान कोर्ट भारतीयों के साथ ज़ुल्म करने वाले फ़ैसलों के लिए कुख्यात थे। बरतानवी सरकार इन गैरकानूनी निर्णयों के प्रति आम अवाम में आक्रोश नहीं पैदा होने देना चाहती थी। इसलिए अवमानना की तलवार पत्रकारिता पर लटकी रहती थी। आज़ाद भारत में इस प्रावधान की कोई ज़रूरत नही है। यदि संविधान के दायरे में कोई फ़ैसला लिया जाता है तो फिर उसकी आलोचना ही कोई क्यों करेगा। अवमानना असल में न्यायालय के अनुचित व्यवहार की ढाल भी है। अब इस पर कौन ध्यानदेता है यह देखना है।
जो भी हो! भारतीय पत्रकारिता को मुख्य न्यायाधीश को शुक्रिया तो कहना ही चाहिए सभी पत्रकार साथियों को